देश के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह चाहते है कि सूचना के अधिकार कानून और इसके दायरे पर पुनर्विचार हो. श्री सिंह नें यह बात केन्द्रीय सूचना आयुक्तों के दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि इस कानून का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सरकार में विचार विमर्श की प्रक्रिया पर इसका कोई उल्टा असर हो या इससे ईमानदार और सही ढंग से काम करने वाले लोग अपनी बात से हतोत्साहित हों हालाँकि अपनें संबोधन में उन्होंने यह भी जोड़ा कि , "हम प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए सूचना के अधिकार को और ज़्यादा प्रभावी बनाना चाहते हैं." साथ में उन्होंने यह भी कहा कि निर्धारित समय में सूचना जारी करने और सार्वजनिक कार्यों में लगे अधिकारियों को मुहैया संसाधनों के बीच एक संतुलन बनाना ज़रूरी है. सवालों के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि "सूचना के अधिकार से सरकार में विचार-विमर्श की प्रक्रिया पर उल्टा असर नहीं होना चाहिए. हमें इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा.
डॉ. मनमोहन सिंह के अनुसार यह ऐसी चिंताएँ हैं जिस पर चर्चा होनी चाहिए और जिसका निबटारा किया जाना चाहिए." उन्होंने सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं के सुरक्षा से संबंधित विधेयक को अगले कुछ महीने में लाने की बात कही इस तरह लोक प्रशासन में गड़बड़ियाँ करने वालों को सामने लाने की कोशिश करने वालों के विरुद्ध हिंसा रोकने में आसानी होगी. प्रधानमंत्री का कहना है कि, "सूचना के अधिकार से जिन विभागों को अलग रखा गया है उन पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है जिससे ये देखा जा सके कि वो व्यापक हित में हैं या उसमें बदलाव करना चाहिए." उन्होंने कहा कि 'निजता से जुड़े मुद्दों' पर विचार होना चाहिए. डॉ मनमोहन सिंह के इन वक्तव्यों से पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून से सरकार कहीं न कहीं त्रस्त जरूर है. और सूचना के अधिकार कानून की आलोचनात्मक दृष्टि से समीक्षा करके उसे कमजोर करना चाहती हैं.
आपको याद होगा तो बता दें कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से विवेक गर्ग नें प्रधानमंत्री कार्यालय से एक चिट्ठी प्राप्त किया था. जो कि 2जी स्पेक्ट्रम पर केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से प्रधानमंत्री को भेजी गई थी इस चिट्ठी को वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की जानकारी में उनके मंत्रालय नें लिखा था. उस पत्र में प्रधानमंत्री को जानकारी दी गई थी कि 30 जनवरी 2008 को तत्कालीन संचारमंत्री ए. राजा से मीटिंग के दौरान तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम नें पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम की नीलामी की इजाजत दी. जबकि स्पेक्ट्रम की नीलामी ज्यादा कींमत पर की जा सकती थी. दरसल वित्तमंत्रालय के अधिकारियों नें ग्रोथ के अनुपात में फीस तय करने की बात की थी. मंत्रालय 4.4 मेगाहड्स से ऊपर के स्पेक्ट्रम बाजार भाव से बेचना चाहता था किन्तु ए. राजा इससे सहमत नहीं थे और उन्होंने स्पेक्ट्रम की सीमा 6.2 मेगाहड्स कर दी और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम उस पर मान गए. वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी की चिट्ठी में प्रधानमंत्री को यह बताया गया था कि अगर श्री पी. चिदंबरम चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को अपने अंजाम तक पहुंचने से रोका जा सकता था
इस चिट्ठी को लेकर श्री प्रणव मुखर्जी एवं श्री पी. चिदंबरम में काफी तनातनी देखने को मिली थी. जब इस चिट्ठी को लेकर कांग्रेस में घमासान चल रहा था ठीक उस समय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी अमेरिका की यात्रा पर थे वहां से वापस आने पर मनमोहन सिंह ने 2जी मसले पर आरोपों से घिरे पी चिदंबरम के साथ प्रणव मुखर्जी के साथ प्रधानमंत्री आवास पर बैठक की. प्रधानमंत्री के साथ बैठक के बाद प्रणब और चिदंबरम मे प्रेस को साझा नोट पढ़कर सुनाया गया इस नोट में प्रणब की तरफ से कहा गया कि 2जी मामले के बारे में उनके राय निजी नहीं हैं. उस समय प्रणब मुखर्जी ने चिदंबरम का बचाव करते हुए कहा कि 2008 में जो टेलीकॉम पॉलिसी सरकार ने अपनाई वो 2003 की ही पॉलिसी है जिसे एनडीए सरकार ने लाया था. प्रणब के इस बयान को पी चिदंबरम ने सहमति दिखाते हुए कहा था कि यह संकट अब टल गया है. इस पूरे मामले में कांग्रेस और सरकार की काफी किरकिरी हुई और यह सब आरटीआई के तहत विवेक गर्ग द्वारा पीएमओ से प्राप्त किये गए उस पत्र के कारण हुई थी जिसे वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी के मंत्रालय नें प्रधानमंत्री को भेजा था.
लेकिन लगता है कि सरकार द्वारा इस कानून में संशोधन कर इसे कमजोर करने की पृष्ठभूमि तैयार की जाने लगी है इसी क्रम में शुक्रवार को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा सूचना के अधिकार कानून के विषय में दिए गए वक्तव्य को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से पीएमओ से निकले वित्तमंत्रालय का पत्र जिसके कारण सरकार की किरकिरी हुई के आलावा एक से बढ़कर एक कामनवेल्थ से लेकर २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का लगातार खुलासा सूचना के अधिकार कानून की मदद हो रहा है. दरअसल सूचना के अधिकार अधिनियम को लागू हुए छ: साल हो गए और अब सरकार को इस कानून से रोजमर्रा के राजकाज में बड़ी बाधा का सामना करना पड रहा है. कानून लागू होने से लेकर लगभग चार सालों तक सरकार को फायदा हुआ. क्योंकि कानून के लागू होने के बाद से जनमत यह बना कि एक जवाबदेह सरकार अपने रोजमर्रा के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है. किन्तु दिल्ली में हुए कामनवेल्थ खेलों के लिए कराए गए निर्माणकार्य तथा खरीद पर हुए घोटाला एवं २जी स्पेक्ट्रम सरीखे घोटालों का खुलासा जब सूचना के अधिकार कानून के माध्यम से होने लगा तो तभी से सरकार इस कानून को लेकर सकते में है. इन खुलासों से घबरायी सरकार सूचना के अधिकार कानून का पर कतरना चाहती है.
सूचना का अधिकार कानून देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त हथियार के रूप में तब प्राप्त हुआ जब संसद द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 पारित किया गया. और 15 जून, 2005 माननीय राष्ट्र पति जी से सूचना का अधिकार कानून को स्वीकृति प्राप्त हुई. अधिनियम का उद्देश्य प्रत्येक सार्वजनिक अधिकरण, केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग के गठन और उनसे संबद्ध या उनसे अनुषांगिक मामलों के कार्यों में पारदर्शिता और जिम्मेदारी में संवर्धन करने के लिए सार्वजनिक अधिकरणों के नियंत्रण के अंतर्गत नागरिकों को सूचना प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए सूचना के अधिकार का व्यवहारिक विधान स्थापित किये जाने का प्रावधान किया गया. यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीयर राज्य को छोड़कर समस्तथ भारत में लागू है. समस्त अधिनियम 12 अक्तूबर, 2005 से लागू होता है उक्त अधिनियम के प्रावधान के अंतर्गत रा.स.वि.नि. सार्वजनिक अधिकरण होने के नाते अधिनियम के भाग 4(1) (ख) के अंतर्गत यथापेक्षित विशिष्ट जानकारी प्रकाशित किये जाने का दायित्वा है.
अन्ना के जन लोकपाल से संबंधित आंदोलन को अलग करदें तो भारत में वास्तविक जमीनी और दूरदर्शी स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का अभाव है जो कि पूरी व्यवस्था को बदलने के लिए उत्पन्न हुये हों. आजादी के बाद से साल दर साल भारत का आम आदमी लगातार कमजोर हुआ है और भारतीय व्यवस्था तंत्र अधिक अमानवीय, असामाजिक तथा गैर जवाबदेह होता जा रहा है. ऐसी कमजोर हालत में सूचना के अधिकार जैसे कानून को जिस गंभीरता और दूरदर्शिता से संभालते और मजबूत करते जाने की अहम जरूरत थी, जिससे कि समय के साथ साथ धीरे धीरे इसी कानून से और भी बड़े तरीके विकसित करके सत्तातंत्रों को आम आदमी के प्रति जिम्मेदार बनने को विवश करके लोकतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों को संविधान के पन्नों में छापते रहने की बजाय यथार्थ में और जमीनी धरातल पर जीवंत उतार कर ले आया जाता. अब अगर प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार कानून को हतोत्साहित कर रहे है तो इसमें कोई बड़ी बात नही क्योकि आजादी के बाद से ही हमारी सरकारें और अफसरशाही ने जरुरत से अधिक अधिकार पाये और वे खुद को मालिक और जनता को गुलाम माना, तो यदि आज आम जनता उनसे कुछ पूछे तो यह बात सरकार और अफसरशाही को कैसे बर्दाश्त होगी. इससे उनकी ‘निजता से जुड़े मुद्दों' पर सवाल जो खड़े होंगे? अतः यदि नेता व अफसर इस कानून को नुकसान पहुंचाते हैं या हतोत्साहित करते हैं तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं क्योकि देश की आम जनता को मजबूत न होने देना और खुद को आम जनता का मालिक बनाये रखने के लिये तरह-तरह के हथकंडे अपनाना तो इनके मूल चरित्र में है.
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