मंगलवार, 17 नवंबर 2009

भारतीय लोकतंत्र के मायने

भारत में आज लोकतंत्र के मायने क्या हैं कहने को तो यह छह दशक पुराना और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है किन्तु क्या जन सामान्य को इस लोकतंत्र का लाभ मिल रहा है । आखिर भारत के लोकतान्त्रिक सरकारों की दिशा क्या है ? भारत विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र होने के कगार पर खड़ा है किन्तु किसका विकास हुआ क्या यह राष्ट्रीय संपत्ति का विकास है या कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों का या फिर जन सामान्य का यह गहन अध्ययन का विषय है । सरसरी तौर पर देखने से विकास तो अब केवल राजनैतिक घटनाओं तक ही सीमित हो गया लगता है । देश में युवा बेरोजगारों की फेहरिस्त लगातार लंबी होती चली जा रही है । बेरोजगार रोजगार न मिलने के कारण आत्महत्या करने को विवश है । विकास के नाम पर सरकारी पैसे का दुरूपयोग, ठेकेदारों को लाभ पहुचाने एवं कमीशन हेतु अनाप-सनाप परियोजनाओं को मंजूरी देना और आम जनता से वसूले गये टैक्स के पैसे को उन परियोजनाओं में झोकना जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों का मुख्य लक्ष्य हो गया है
आखिर स्पेशल इकोनामिक ज़ोन किसके लिए है ? स्पेशल इकोनामिक ज़ोन अधिनियम २००५ को लागू कर किसका भला किया जा रहा है और किसको बेदखल किया जा रहा है किसी से छुपा नहीं है । इस अधिनियम की आड़ लेकर किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल करने का षड्यंत्र जारी है । इन्ही कारणों से कृषि का संकट और भी गहरा हो रहा है । क्या कृषि को हाशिये पर रख कर उद्योगों को उन्नत बनाया जा सकता है वह भी ऐसे उद्योगों को जिससे गिने-चुने उद्योगपतियों को लाभ हो । स्पेशल इकोनामिक ज़ोन को विकसित करने के नाम पर उद्योगपतियों को भारी पैमाने पर करों में छूट दी जा रही है इतना ही नहीं जनता से वसूले गए टैक्स का हजारों करोड़ रूपये सब्सिडी के नाम पर उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है साथ ही इन स्पेशल इकोनामिक ज़ोन से श्रम कानूनों को दूर रखने की पुरजोर कोशिशें हो रहीं है जिससे निरंकुश उद्योगपति श्रमिकों का शोषण कर सकें । मनमोहन, चिदंबरम और मोंटेक डेढ़ से दो दशक पहले (ट्रिकल डाउन थ्योरी) के बारे में कहा था कि समाज के शिखरों पर समृद्धी आयेगी तो वह नीचे तक पहुंच जायेगी किन्तु नतीजों की दिशा इन दावों से एकदम उलट दिखती है । अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ ने "ट्रिकल डाउन थ्योरी" का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि घोड़े को चाहे कुछ भी खिलाओ पीछे से वह लीद ही निकलेगा यानि ट्रिकल डाउन थ्योरी की आड़ में उद्योगपतियों को चाहे जितना भी छूट और मुनाफा कूटने के अवसर दिए जाय तो भी वे श्रमिकों को उतना ही देंगे जिससे वे कारखाने में अपनी हड्डियाँ गला सकें ।
देश के नागरिकों के लिए लोकतंत्र को बड़ी सफाई से "ये जनता का, जनता से, जनता के लिए शासन है" का नारा दिया जाता है यह नारा आमजन को भ्रमित करने के लिए गढ़ा गया लगता है । अभी तक लोकसभा या विधानसभा के चुनावों में ऐसा कहीं भी नज़र नहीं आया कि चुनाव जनता के लिए हो रहे है । नेताओं और उनकी तथाकथित पार्टियों द्वारा सत्ता हथियाने के उद्देश्य से अपनाए जा रहे हथकंडों को देख कर यही लगता है कि चुनाव सत्ता सुख की प्राप्ति के लिए हो रहे है इन चुनावों के पश्चात विजेता अपने कार्यकाल में जनता के हित कम और अपने हित अधिक साधते है । विख्यात गांधीवादी व दर्शनशास्त्री प्रोफ़ेसर रामजी सिंह नें एक व्याख्यानमाला में कहा कि भारत में दलगत राजनीति का दीया बुझ चुका है । दलगत राजनीति व सत्ता पर दलपतियों का कब्जा है और संसदीय प्रणाली महज औपचारिक लोकतंत्र बन गयी है । भारतीय लोकतंत्र पर परिवारवाद हावी है । ध्यान से देखें तो आज आधी संसद ही परिवारवाद का नमूना है । भारतीय राजनीति में परिवारवाद की मौजूदा स्थिती को देखकर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले ५ से १० वर्षों में भारतीय संसद पर केवल ५०० परिवारों का कब्जा होगा और उन्ही का शासन भी ।
इन सबके बीच आम आदमी की स्थिती क्या है ? अभाव और गरीबी से त्रस्त मंहगाई की मार झेलने को मजबूर, मंहगाई की मार का सीधा असर आम आदमी पर पड़ रहा है । दिन भर मेहनत करके भी मुश्किल से दो जून की रोटी पूरे परिवार को नसीब हो रही है । लगभग ३५ करोड़ लोग भूखा सोने को विवश हैं । राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की जनवरी २००८ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार २००५-०६ में लगभग १९ % आबादी मात्र १२ रूपये प्रतिदिन से कम में गुजारा कर रही थी । इसी तरह २२% शहरी आबादी ५८० रूपये मासिक से भी कम में जीवनयापन करने को मजबूर है । देश की लगभग एक अरब दस करोड़ की आबादी में से शासक वर्ग और उसके नाभिनाल से जुड़े उच्च मध्य वर्ग और मध्यम मध्यवर्ग लगभग १५ से २० करोड़ के बीच है, इसमें पूंजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, शेयर दलालों, कमीशन एजेंटों, कार्पोरेट प्रबंधकों, सरकारी नौकरशाहों, नेताओं, डाक्टरों, इंजीनियरों, उच्च वेतनभोगी प्रोफेसरों, मिडिया प्रबंधकों, अच्छी प्रक्टिस करने वाले वकीलों को गिना जा सकता है । इन्ही के लिए लोकतंत्र के मायने हो सकते हैं बाकी के लगभग ८८ से ९० करोड़ की आबादी के लिए आज भी लोकतंत्र के मायने नहीं हैं । "अमर्त्य सेन के शब्दों में कहें तो मानव एक उदर के साथ दो हांथ और एक मस्तिष्क लेकर पैदा होता है और यह सत्ता और व्यवस्था की सफलता, असफलता होती है कि वह उसका किस तरह प्रयोग कराती है या तो उसके हांथ व मस्तिष्क से मानव समाज के विकास की ओर बढ़ा जा सकता है और व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है अन्यथा वह इसे व्यवस्था परिवर्तन के हथियार के रूप में प्रयोग करेगा जहां उसे सम्पूर्ण रोजगार, सम्पूर्ण सुविधाए, और समानता की उम्मीद होगी"

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

(पसंद की भाषा में) बोलने की आजादी पर हमला

कल महाराष्ट्र विधान सभा में २००९ के नवनिर्वाचित विधायकों के सपथ समारोह में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आज़मी के साथ सदन में हाथापाई और मारपीट की गयी । आज़मी का दोष यह था कि उन्होंने हिंदी में सपथ लेने का साहस किया विधानसभा के अंदर किसी तरह की हाथापाई या अभिव्यक्ति में बाधा पहुंचाना दरअसल सदन की अवमानना एवं बोलने की आजादी पर हमला है।
संविधान के अनुच्छेद १९४ में राज्य के विधानमंडल को अधिकार होता है कि वे अपनी अवमानना के लिए अपने सदस्य या गैर-सदस्य को दंडित कर सकते हैं। अनुच्छेद १९४-३ यह कहता है कि विशेषाधिकार उल्लंघन के लिए राज्य विधानमंडलों के पास दंडित करने का वही अधिकार होगा, जो १९७८ में ४४ वें संविधान संशोधन के लागू होने के ठीक पहले था। सदन की अवमानना के लिए या विशेषाधिकार हनन के लिए सदन को जो तमाम अधिकार दिए गए हैं, उसमें जेल में निरूद्ध करना, बुलाकर फटकार लगाना या अन्य आवश्यक या उचित दंड देने के अधिकार शामिल हैं। इसके अलावा सदन को अपने सदस्यों को उपरोक्त दंडों के अलावा उनको निष्कासित करने या निलंबित करने या अन्य तरह से दंडित करने का अधिकार भी प्राप्त है। महाराष्ट्र विधानसभा में हमलावर विधायकों द्वारा अबू आजमी से हाथापाई या थप्पड़ मारना या कोई भी कार्रवाई करना गैरकानूनी कार्य करना सदन की अवमानना है।
हालाँकि सदन नें हमलावर विधायकों को चार वर्ष के लिए निलंबित कर दिया यह बात आयी गयी हो जायेगी महाराष्ट्र का सदन भी आने वाले दिनों में अपना काम करने लगेगा अबू आसिम आज़मी भी अपने साथ किये गये दुर्व्यवहार को भूलकर अपने काम में व्यस्त हो जायेगे किन्तु इस घटना से अगर किसी की क्षति हुई है तो वह है अपने पसंद की भाषा में बोलने की आजादी क्षति ! इसकी क्षतिपूर्ति न तो हमलावर कर सकते है ( माफी मांगने पर भी), न अबू आसिम आज़मी और न तो वह सदन जिसने प्रस्ताव पास करके हमलावर विधायकों को चार वर्ष कल लिए निलंबित कर दिया ।
कुछ लोग इसे अबू आसिम आज़मी की राजनैतिक हठवादिता की उपमा देंगे तो कुछ लोग उपरोक्त हमलावरों को क्षेत्रीय भाषाई उग्रवाद की उपमा देंगे किन्तु यहाँ पर हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं यह पसंद की भाषा में बोलने की आजादी पर हमला है और अबू आसिम उसके वाहक बनें लेकिन उन्होंने इस मुद्दे के प्रवाह को मोड़ दिया विषय पर बुलाये गये कांफ्रेंस में बाल ठाकरे पर तीखी टिप्पणी की और वे बोलने की आजादी पर हुए हमले को मुद्दा नहीं बना सके । अगर वे इस मुद्दे को लेकर आम जनता में गये होते तो आम जन में नवीन राजनीतिज्ञों एवं व्यवस्थातंत्रों के विरूद्ध एक नई जागरूकता, एवं संघर्ष चेतना का निर्माण होता एवं अभिव्यक्ति के आजादी के वास्तविक लडाई के वाहक बनते ।
लोकतंत्र में अपनी बात अपनी भाषा में कहने की आजादी होनी चाहिए इसे रोकना लोकतंत्र पर कुठाराघात है क्योंकि अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता का मूल मानव अधिकार है । किसी को उसके पसंद की भाषा में बोलने से रोकना उसकी स्वतंत्रता का हनन है, उसके मानव अधिकारों का हनन है १० दिसम्बर १९४८ वह ऐतिहासिक दिन था जब संयूक्त राष्ट्र महासभा नें मानव अधिकार पर सार्वभौमिक घोषणा पत्र यानि युनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स जिसके अनुच्छेद १९ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को विचारों की अभिव्यक्ति और जानकारी हासिल करने का अधिकार है ।
भारत के संविधान के द्वारा प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति का मूल अधिकार दिया गया है जिसमें मनचाही अभिव्यक्ति के साथ भाषाई स्वतंत्रता भी शामिल है । देश के प्रत्येक नागरिक को अपने पसंद की भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने का अधिकार है अगर इन अधिकारों से कोई किसी को वंचित करता है या रोकता है तो वह मानव अधिकारों के उल्लंधन का दोषी है साथ ही वह राष्ट्र की एकता व अखंडता पर कुठाराघात करने का दोषी भी होगा ।