बुधवार, 17 जून 2009

महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग जाँच के दायरे में

महाराष्ट्र राज्य मानवाधिकार आयोग के काम-काज की जांच मुंबई हाईकोर्ट करेगा, मानवाधिकार आयोग में मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में कोई करवाई न किए जाने को लेकर तथा आयोग के सदस्यों द्वारा नियमित तौर पर की गई अनियमितताओं पर एक जनहित याचिका दायर की गयी थी । इस याचिका के लिए सूचना अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त की गई थी याचिका में कहा गया था कि जून २००८ तक २८,०८३ मामले दायर किए गए थे । परन्तु आयोग नें कारवाई का आदेश केवल ३९ मामलों में दोषी अधिकारियों के खिलाफ दिया है । मानवाधिकार उल्लंघन के मामले शिकायतकर्ताओं नें दायर किए थे ये मामले राज्य के विरुद्ध थे जिसमें सरकारी अधिकारी भी शामिल थे ।
आयोग नें २४०७१ मामले निपटाए तथा जून २००८ तक ४०१२ मामले निपटाने बाकी थे याचिका में कहा गया था कि २४०३२ मामलों को विचारणीय न माना जाना अजीब लगता है । इसका अर्थ यह हुआ कि केवल ०।१६ प्रतिशत मामलों में ही मानवाधिकार उल्लंघन के केस साबित हो पाए क्या बाकी बकवास थे ? यह याचिका व्यवसायी व समाजसेवी पुष्कर दामले नें दायर की थी । जो हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार तथा एस।सी. धर्माधिकारी की खंडपीठ में गुरुवार को सुनवायी हेतु आयी थी । खंडपीठ नें इस याचिका पर राज्य सरकार से ३ सप्ताह के भीतर उत्तर देने को कहा है । याचिका में बताया गया है कि राज्य सरकार नें वर्ष १९९३ के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के वर्ष २००६ के संशोधन के प्रावधानों को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया इस परिवर्तन से किसी भी उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता तथा ४ सदस्यों वाले आयोग में मात्र एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य रखे जाने थे पर वर्ष २००६ में आयोग केवल एक अध्यक्ष सी।एल। थूल की अध्यक्षता में ६ माह तक काम करता रहा ।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि २३.११.२००६ में इसके लागू होने से पूर्व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित कमेटी नें ३ सदस्यों का चयन किया इनकी नियुक्ति राज्यपाल नें वास्तव में १०.११.२००६ में की थी । अब तक जो सदस्य कार्यरत रहे उनमें टी।सिंगार्वेल ( नागपुर के पूर्व पुलिस आयुक्त ) सुभाष लाला ( मुख्यमंत्री के पूर्व निजी सहायक) तथा विजय मुंशी ( उच्च न्यायलय के पूर्व जज ) याचिका में कहा गया है कि परिवर्तित एच.आर. एक्ट अभी तक महाराष्ट्र सरकार नें लागू नहीं किया है । याचिका में कहा गया है कि अपनी नियुक्ति के एक दिन बाद ही एक सदस्य कैंसर सर्जरी के लिए अवकाश पर चला गया । इस सदस्य के इलाज पर राज्य सरकार के ६।२५ लाख रूपये खर्च हुए एक अन्य सदस्य नें निर्देशों का उल्लंघन करके अपनी पत्नी के साथ अत्यधिक यात्रायें की ।

रविवार, 7 जून 2009

अनुकंपा नियुक्ति पाना व्यक्ति का अधिकार नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि अनुकंपा नियुक्ति पाना व्यक्ति का अधिकार नहीं है। अनुकंपा नियुक्ति कमाऊ व्यक्ति की अचानक हुई मौत से परिवार को होने वाले वित्तीय संकट से उबारने के लिए दी जाती है। यह नौकरी में भर्ती का जरिया नहीं हो सकती और न ही इसे कोई उपहार या सरकारी नौकरी पाने का अधिकार माना जा सकता है। यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 18 वर्ष पहले लापता हुए सिपाही के बेटे की अनुकंपा नियुक्ति की मांग खारिज कर दी है। यह फैसला न्यायमूर्ति मुकुंदकम शर्मा व न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान की पीठ ने उत्तर प्रदेश के संतोष कुमार दुबे की याचिका खारिज करते हुए सुनाया है। इसके पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट भी संतोष की मांग ठुकरा चुका है।
इस मामले में संतोष के पिता वर्ष 1981 में लापता हो गए थे। वे सिपाही थे। उसकी मां ने लापता होने के सात साल बाद याचिका दाखिल कर पति की नौकरी के लाभ व पैसा दिलाए जाने की मांग की। कोर्ट ने सिपाही को लापता हुए सात वर्ष बीत चुकने के कारण मरा मानते हुए वर्ष 1999 में पत्नी के हक में आदेश पारित कर दिया। संतोष ने भी याचिका दाखिल कर अनुकंपा नियुक्ति की मांग की। राज्य सरकार ने याचिका का पुरजोर विरोध किया और कहा कि निर्धारित नियमों के मुताबिक संतोष को अनुकंपा नियुक्ति नहीं दी जा सकती क्योंकि उसके पिता को बिना बताए गैरहाजिर रहने पर नौकरी से बर्खास्त किया गया था। जबकि संतोष के वकील का कहना था कि जब कोर्ट के आदेश पर उसकी मां को वर्ष 1999 में लाभ दिए गए तो फिर उसकी याचिका को देरी के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सेवा के कर्मचारियों के आश्रितों को अनुकंपा नियुक्ति दिए जाने के नियमों पर विचार किया जिसमें अन्य आधारों के साथ एक आधार यह भी था कि मरने वाले के आश्रित मृत्यु के पांच वर्षो के अंदर अनुकंपा नियुक्ति की अर्जी देंगे। पीठ ने नियमों का विश्लेषण करते हुए कहा कि पांच वर्ष के भीतर अर्जी दी जानी चाहिए थी। संतोष के पिता वर्ष 1981 में लापता हुए। सात वर्ष की अवधि 1988 में पूरी होती है (किसी व्यक्ति के सात वर्ष तक लापता रहने पर कानून में उसे मरा मान लिया जाता है)। इसके बाद 1993 में पांच वर्ष और हो जाते हैं। याचिकाकर्ता को वर्ष 1993 तक अर्जी दे देनी चाहिए थी
कोर्ट ने कहा कि सिपाही के लापता होने के 18 साल बाद तक परिवार का गुजारा चलता रहा और सफलतापूर्वक आर्थिक संकट से उबर गया। इन परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें याचिकाकर्ता को अनुकंपा नियुक्ति दिए जाने का निर्देश पारित करने का आधार नहीं लगता और इस मामले में लागू नियम भी उन्हें ऐसा निर्देश जारी करने की अनुमति नहीं देते हैं।
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