बुधवार, 18 जून 2008

मानव अधिकारों का सामाजिक स्वरूप

वस्तुतः मानव अधिकारों का स्वरूप सामाजिक ही है समाज के बिना अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं, यह एक प्रकार का सामाजिक दावा है जो कि न तो स्वार्थ पूर्ण है और न तो किसी दुसरे व्यक्ति के हितों को नुकसान पहुंचता है । प्रो० लास्की ने कहा है कि " अधिकार सामाजिक जीवन की वह परिस्थिति है जिनके बिना कोई भी मनुष्य अपनी उन्नति पर नहीं पहुंच सकता" मानव अधिकार द्वारा समाज में सभी के हितों की पुष्टि होती है और इसमे समाज तथा कानून की मान्यता निहित रहती है मानव अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी है ए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से मानव कल्याण से संवंधित है मानव हित से संवंधित होने के कारण ही मानव अधिकार राज्य तथा समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है ।
मानव अधिकारों की सोच व्यक्ति के सामाजिक जीवन की देन है, समाज में रह कर ही मानव अधिकारों का प्रयोग किया जाता है मानव अधिकारों का प्रयोग जब-तक लोकहित में होता रहेगा तब-तक उसके ऊपर किसी का भी नियंत्रण नही हो सकेगा मानव अधिकारों के संरक्षण की जिम्मेदारी राज्य के ऊपर होती है, प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से अधिकारों का प्रयोग करने का अवसर देना कल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए, मानव अधिकारों का लक्ष्य सार्वभौमिक है यदि एक व्यक्ति को जीने का अधिकार है तो यह अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए अन्तर्निहित है, मानव अधिकारों की अवधारणा ने कर्तव्य को प्राथमिकता दी है अधिकार हमेसा कर्तव्य से संवंधित रहता है कर्तव्य के अभाव में हम किसी अधिकार की कल्पना नहीं कर सकते यदि लोगों को संपत्ति का अधिकार है तो यह अन्य व्यक्ति का कर्तव्य है कि वे उसके इस अधिकार का उल्लंधन न करे इस विषय में पश्चिमी विचारक हाब हाउस ने कहा है कि "अधिकार और कर्तव्य सामाजिक कल्याण की दो महत्वपूर्ण दशाए है ।
वैसे तो केवल एक लेख में संपूर्ण मानव अधिकारों की व्याख्या करना अत्यन्त कठिन कार्य है, सभ्यता और सामाजिक संगठन के साथ ही अधिकारों की वृद्धि होती गई और अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई है । भिन्न-भिन्न देशों के नागरिकों को भिन्न-भिन्न अधिकार प्राप्त है स्वतंत्र देश के नागरिक के अधिकार परतंत्र देश के नागरिकों के अधिकारों से भिन्न एवं मुखर होते है, हम यहाँ स्वतंत्र देश के नागरिकों के अधिकारों का अध्यन करें । अधिकारों को हम यहाँ चार श्रेणियों में विभाजित करते है । (१) प्राकृतिक अधिकार (२) नैतिक अधिकार (३) मौलिक अधिकार (४) कानूनी या वैधानिक अधिकार ।
प्राकृतिक अधिकार :- प्राकृतिक अधिकारों की श्रेणी में नैतिक व नैसर्गिक मूल अधिकार आते है यदि प्राकृतिक शब्द का विश्लेषण किया जाय तो पता चलता है कि इस शब्द का प्रयोग विराट, स्वाभाविक, आदर्श, अकृत्रिम और नैतिक के अर्थ में होता है अतः प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक अधिकारों से व्यक्ति के उन अधिकारों का ज्ञान होता है जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त हो इसका अर्थ यह हुआ कि आदिम अवस्था में अथवा समाज के निर्माण से पहले व्यक्ति उन अधिकारों का उपयोग करता आया है । इन अधिकारों की जननी प्रकृति थी और जबतक संसार में मनुष्य रहेंगे तब-तक उन अधिकारों से मनुष्य को वंचित नहीं किया जा सकता प्रकृति ने जो सामाजिक भावना की उत्पत्ति की है इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए थी ।
उदाहरण के लिए-जीवन रक्षा और स्वतंत्रता के अधिकार व्यक्ति को है तो समाज का कर्तव्य हो जाता है कि वह इन अधिकारों की रक्षा इस लिए करे क्योकि समाज का निर्माण इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए हुआ है इस विषय में रूसों का मत है कि-"प्राकृतिक अधिकार ही आदर्श अधिकार थे और वे राज्य की उत्पत्ति से पहले विद्यमान थे ।
नैतिक अधिकार :- ऐतिहासिक काल से ही समाज व्यक्ति के इन अधिकारों को स्वीकार करता आया है उदहारण के लिए-बच्चे को यह अधिकार प्राप्त है कि जब-तक वह बडा न हो जाय माता-पिता उसका भरण-पोषण करें, गरीबों को सहायता करना, अंधे को रास्ता बताना आदि ऐसे अधिकार है जिनके विपरीत कार्य करने पर राज्य अथवा समाज दण्डित तो नही कर सकता परन्तु उन्हें हीन दृष्टि से अवश्य देख सकता है । इस आधार पर नैतिक अधिकार को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है "जिन अधिकारों के प्रयोग के अभाव में व्यक्ति के आत्मा को कष्ट हो अथवा जिसका संवंध आत्मा से है वे नैतिक अधिकार है जैसे राज्य या समाज का यह कर्तव्य है कि वह नारी (महिलाओं ) का आदर करे । शवों का सम्मान भी नैतिक अधिकार के ही अंतर्गत आते है ।
मौलिक अधिकार :- इन अधिकारों को हम प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक दोनों कह सकते है, यही कारण है जिसके उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है । इन्ही अधिकारों के कारण व्यक्ति और समाज, राज्य और नागरिक का संवंध स्थिर होता है । कोई भी राज्य अथवा समाज बिना अपने सांस्कृतिक स्वरूप को बदले इन अधिकारों के प्रयोग से नागरिकों को वंचित नहीं कर सकता यही कारण है कि प्रायः सभी सभ्य एवं आधुनिक देशों के विधान में इन अधिकारों का स्पष्ट वर्णन रखा गया है । स्वतंत्रता, समानता, जीवनरक्षा, जीविकोपार्जन तथा देश के संविधान में आस्था इन्ही मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आते है ।
इन अधिकारों को प्राकृतिक अथवा मौलिक अधिकार इसलिए कहा जाता है कि इन्ही से व्यक्ति की स्थिति और विकास की आवश्यक दशाओं का निर्माण होता है इन अधिकारों का कोई निश्चित वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं किया जा सकता तथा न ही इसकी कोई सर्वमान्य तालिका ही बनाई जा सकती है ।
कानूनी या वैज्ञानिक अधिकार :- वैज्ञानिक अधिकारों के अंतर्गत सामाजिक तथा राजनैतिक दोनों प्रकार के अधिकार आते है । यह अधिकार व्यक्ति की वह मांग है जिसे समाज स्वीकार करता है तथा राज्य मान्यता देता है । वैज्ञानिक अधिकार वह अधिकार है जिसका उपयोग सभी नागरिक (वयस्क, बालक, विदेशी और व्यापारी ) करते है राज्य का यह कर्तव्य है कि इन अधिकारों के उपयोग के लिए सरल नियम बनाये साथ ही जो व्यक्ति, व्यक्ति अथवा समाज को इन अधिकारों के उपयोग से वंचित करें या इन अधिकारों का हनन अथवा अतिक्रमण करे उन्हें राज्य समुचित दंड दे । कानूनी अधिकारों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है (१) सामाजिक अधिकार (२) राजनैतिक अधिकार ........आगे जारी...................